बागेश्वर। कोरोना काल में पिछले दस माह से बंद श्री बागनाथ मंदिर में मकर संक्रांति पर्व के बीच भक्तों के लिये मंदिर के कपाट खोल दिये गये है। कुमाऊं में मकर संक्रांति को मनाये जाने वाले घुघुतिया त्योहार का विशेष महत्त्व है। उत्तराखंड में यह त्योहार अलग ही पहचान रखता है। इस त्योहार की कथा मुख्यतः कौवा और घुघुतिया राजा पर केंद्रित है। प्राचीन काल की बात है। कुमाऊं में चंद वंश का शासन था। राजा कल्याण चंद निःसन्तान थे। राजा ने बागेश्वर जाकर भगवान बागनाथ की पूजा की और मकर संक्रांति के दिन उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। उसका नाम निर्भयचंद रखा गया। लेकिन उसकी मां उसे प्यार से घुघुती कहकर पुकारती थी। घुघुती के गले में एक मोतियों की माला थी। माला को देखकर घुघुती खुश रहता था। जब वह रोता तो उसकी मां उसे चुप कराने के लिए कहती थी काले कौवा काले, घुघुती की माला खाले घुघुती की मां की आवाज सुनकर इधर-उधर से कौवे का जाते और उसकी मां उन्हें पकवान देती। धीरे-धीरे कौवा और घुघुती एक दूसरे का मनोरंजन करने लगे। राजा के दरबार मे एक मंत्री घुघुती को मारना चाहता था, क्योंकि राजा की कोई दूसरी संतान नहीं थी। एक दिन राजा का मंत्री घुघुती को उठाकर दूर जंगल में ले गया। तभी उसके चारों ओर कौवे मंडराने लगे। कौवे घुघुती के गले की माला छीनकर राजमहल की ओर लाए। सब समझ गए कि घुघुती की जान खतरे में है। राजा तथा उसके अन्य मंत्री जंगल की ओर दौड़े। एक पेड़ के नीचे घुघुती अचेत पड़ा था। इस प्रकार कौवों ने घुघुती की जान बचाई और मंत्री को कठोर दंड दिया गया। तभी से मकर संक्रांति को लोग आटे के डिकरे बनाते और कौवों को खिलाते। दूसरी मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में घुघुतिया नाम का एक राजा था। वह ज्योतिषियों में विश्वास करता था। एक दिन उसने अपनी मृत्यु के बारे में जानना चाहा। पहले तो सभी राजा के विचार को टालते रहे। लेकिन राजा की जिद पर आखिरकार ज्योतिषियों ने ग्रह नक्षत्रों की स्थिति को देखकर बताया कि मकर संक्रांति को कौवे के चोंच मारने से राजा की मृत्यु होगी। सभी इससे चिंतित रहने लगे। तब एक विचार आया कि मकर संक्रांति को आटे के डिकरे बनाकर कौवों को खिलाए जाएं और दिनभर कौवों को व्यस्त रखा जाय ताकि राजमहल की ओर कोई कौवा नहीं आ पाए। सभी ने आटे के पकवान घुघुते बनाए और बच्चे प्रातःकाल से ही काले कौवा काले, घुघुती की माला खाले की आवाज लगाने लगे। कौवे दिनभर घुघुते खाने में व्यस्त रहे। महल की ओर कोई भी कौवा नहीं आया। इस प्रकार राजा की मृत्यु टल गई। तभी से यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में 14 जनवरी, 1921 को कुमाऊं केसरी बंद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में कुली बेगार के खिलाफ पहली बार आवाज उठी थी। बागेश्वर से कुली बेगार के खिलाफ आंदोलन पूरे पहाड़ में फैला। 30 जनवरी, 1921 को चमेठाखाल गढ़वाल में वैरिस्टर मंदीलाल के नेतृत्व में आंदोलन आगे बढ़ा। खल्द्वारी के ईश्वरीदत्त ध्यानी और बंदखणी के मंगतराम खंतवाल ने मालगुजारी से त्यागपत्र दिया। गढ़वाल में दशजूला पट्ट के ककोड़ाखाल ;गोचर से पोखरी पैदल मार्गद्ध नामक स्थान पर गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में आंदोलन हुआ और अधिकारियों को कुली नहीं मिले। लेखक चारु तिवारी बताते हैं कि बागेश्वर व गढ़वाल के बाद इलाहाबाद में अध्ययनरत गढ़वाल के छात्रों ने अपने गांव लौटकर आंदोलन को आगे बढ़ाया। इनमें भैरवदत्त धूलिया, भोलादत्त चंदोला, जीवानंद बडोला प्रमुख थे। उत्तरायणी का ही संकल्प था कि पहली बार यहां की महिलाओं ने अपनी देहरी लांघकर आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी करना शुरू किया। कुंती देवी, बिसनी साह जैसी महिलाएं आंदालनों का नेतृत्व करने लगी। आजादी के आंदोलन में महिलाओं के उठते स्वरों ने बड़ी चेतना की शुरुआत थी। चारु तिवारी कहते हैं इसने बाद में महिलाओं को सामाजिक जीवन में आगे आने का आकाश दिया। बिशनी साह ने तब कहा- च्सोने के पिंजरे में रहने से अच्छा, जंगल में रहना है। बागेश्वर के सरयू-गोमती बगड़ से चेतना के स्वर उठते रहे हैं। आजादी के बाद सत्तर के दशक में जब जंगलात कानून के खिलाफ आंदोलन चला तो आंदोलनकारियों ने उत्तरायणी के अवसर पर यहीं से संकल्प लिए। नए जनगीतों का आगाज हुआ- आज हिमालय तुमन क ध्यतौंछ, जागो-जागो ये मेरा लाल। अस्सी के दशक में जब नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन चला तो उत्तरायणी से आंदोलन के स्वर मुखर हुए। लेखक चारु तिवारी बताते हैं कि 1987 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जब भवदेव नैनवाल ने भ्रष्टाचार के प्रतीक कनकटे बैल को प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने पेश करने के लिए दिल्ली रवाना किया तो बागेश्वर से ही संकल्प लिया गया। राज्य आंदोलन के शुरुआती दौर में राज्य आंदोलन के लिए हर वर्ष नई चेतना के लिए आंदोलनकारी उत्तरायणी में जुटते थे। उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण बनाने के लिए संकल्प-पत्र और वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम पर गैरसैंण का नाम चंद्रनगर रखने का प्रस्ताव भी 1992 में यहीं से पास हुआ। तभी जनकवि गिर्दा ने उत्तराखंड आंदोलन को स्वर देते हुए कहा कि- उत्तरैणी कौतिक ऐगो, वैं फैसाल करूंलों, उत्तराखंड ल्हयूंल हो दाज्यू उत्तराखंड ल्हयूंलो। चारु तिवारी कहते हैं उत्तरायणी न केवल हमारी सांस्कृतिक थाती है, बल्कि हमारे सामाजिक, राजनीतिक, आघ्थक और समसामयिक सवालों को समझने और उनसे लडने की प्रेरणा भी है। जब हम उत्तरायणी को मनाते हैं तो हमारे सामने संकल्पों की एक लंबी यात्रा के साथ चलने की प्रेरणा भी होती है। उत्तराखंड के बहुत सारे सवाल राज्य बनने के बीस वर्षों बाद भी आम जन को बेचैन कर रहे हैं।
बागनाथ मंदिर में लगा श्रद्धालुओं का तांता,माघी खिचड़ी का आयोजन किया
बागेश्वर। उत्तरायणी मेले में श्रद्धालुओं का सुबह चार बजे से ही तांता लगा रहा। मकर स्नान के बाद उन्होंने बाबा बागनाथ के दर्शन कर पूजा-अर्चना की। सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य की कामना भगवान शंकर से की। सूरजकुंड में यज्ञोपवीत संस्कार करने के लिए लोगों का तांता लगा रहा। मकर संक्रांति पर स्नान-दान करने का विशेष महत्व है। श्रद्धालुओं ने सरयू-गोमती और विलुप्त सरस्वती के संगम पर स्नान कर दान किया। पंडित मोहन चंद्र लोहुमी ने बताया कि मकर संक्रांति के दिन भगवान विष्णु ने पृथ्वी लोक पर असुरों का वध कर उनके सिरों को काटकर मंदरा पर्वत पर दफन कर दिया था। तभी से भगवान विष्णु की इस जीत को मकर संक्रांति पर्व के रूप में मनाया जाता है। सूर्यदेव को जल, लाल फूल, लाल वस्त्र, गेहूं, गुड़, अक्षत, सुपारी और दक्षिणा अद्दपत की जाती है। गुरुवार की सुबह चार बजे से श्रद्धालुओं पहुंचने लगे। उन्होंने सरयू तट पर स्नान किया और बागनाथ मंदिर में पूजा अर्चना की। बागनाथ, काल भैरव और वाणेश्वर मंदिर में श्रद्धा का तांता दिनभर लगा रहा। सरयू तट के अलावा सूरजकुंड में जनेऊ संस्कार आयोजित हुए। सुदूरवर्ती गांवों से यहां बड़ी संख्या में लोग पहुंचे। उन्होंने अपने पुत्रों का यज्ञोपवीत संस्कार कराया। पंडितों के अनुसार उपनयन संस्कार के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है। जिसे यज्ञोपवीत संस्कार भी कहा जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। प्राचीनकाल में पहले शिष्य, संत और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। इस दीक्षा देने के तरीके में से एक जनेऊ धारण करना भी होता था। इधर, एसपी मणिकांत त्रिपाठी ने मेला स्थल का निरीक्षण किया। सूरजकुंड में आने वाले श्रद्धालुओं की थर्मल स्क्रीनिग की गई। हिन्दू संगठनों ने सरयू तट पर माघी खिचड़ी का आयोजन किया। मेले में स्नान और पूजा-अर्चना के बाद लोगों ने प्रसाद के रूप में माघी खिचड़ी का सेवन किया। पंडित घनानंद कांडपाल शास्त्री के अनुसार ने बताया कि खिलजी के आक्रमण के दौरान नाथ योगियों के पास खाने के लिए कुछ नहीं था। तब बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और हरी सब्जियों को एक साथ पकाने की सलाह दी थी। इस दिन से खिचड़ी खाने और बनाने का रिवाज चला आ रहा है। खिचड़ी को पौष्टिक आहार के रूप में भी ग्रहण किया जाता है। जिले में नगर से लेकर ग्रामीण अंचलों तक घुघुतिया त्योहार धूमधाम से मनाया जा रहा है। गुरुवार को सरयू नदी के इस पार के लोगों ने घुघुत ;आटे से बना विशेष पकवानद्ध बनाए। जबकि उस पार के बच्चों ने कौओं को बुलाया। सुबह के समय उस पार के ग्रामीण क्षेत्र बच्चों के कौओं को पकवान खिलाने के लिए आमंत्रित किए जाने वाले गीत की ध्वनि से गुंजायमान रहे। घुघुतिया त्योहार कुमाऊं का पारंपरिक उत्सव है। जिले में इस त्योहार को दो दिन मनाया जाता है। सरयू नदी के पार के क्षेत्र में पौष माह की अंतिम तिथि को घुघुत बनाएं जाते हैं। यहां मकर संक्रांति के दिन सुबह कौआ बुलाकर उसे घुघुत खिलाते हैं। सरयू नदी के इस पार मकर संक्रांति के दिन घुघुत बनाने और माघ मास की दूसरी तिथि को कौआ आमंत्रित करने का रिवाज है।जागरण की रात गंगा स्नान को आए ग्रामीण क्षेत्र के लोगों ने बैर-भगनौल, चांचरी आदि का आयोजन किया। रातभर कुमाऊं की पुरानी परंपरा की धूम रही। वहीं, बागनाथ मंदिर में भी भत्तफों ने भजन आदि का आयोजन किया। उत्तरायणी कौतिक पौराणिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक, राजनीतिक विधाओं को पिरोए हुए है। बैर-भगनोल गायन की परंपरा उत्तरायणी मेले को चार चांद लगा देती है। इस बार धाद्दमक मेले का आयोजन किया जा रहा है। बुधवार की रात चैक बाजार में बैर-भगनौल का आयोजन किया गया। लोगों ने तमाम भगनौल का गायन किया। जिसमें महिलाएं भी शामिल रही। खोल दे माता खोल भवानी धार मे किवाड़ा, उत्तरायणी कौतिक लगा सरयू किनारा समेत तमाम चांचरी का भी गायन किया गया। सुबह चार बजे तक इस विधा का आयोजन चलता रहा। उसके बाद श्रद्धालुओं ने सरयू में स्नान किया।
मकर संक्रांति पर किसान बिल की प्रतियां सरयू नदी में बहाई
बागेश्वर। आम आदमी पार्टी और सवाल संगठन के सदस्यों ने सरकार से बिल वापस लेने की मांग की जासं, बागेश्वरः गुरुवार को मकर संक्रांति पर्व पर किसान बिल को आम आदमी पार्टी और सवाल संगठन के सदस्यों ने सरयू नदी में बहाए। उन्होंने केंद्र सरकार से किसानों के हित में काम करने को कहा। उन्होंने कहा कि यदि किसानों के साथ अन्याय हुआ तो वह सहन नहीं होगा। आप के प्रदेश उपाध्यक्ष बसंत कुमार के नेतृत्व में कार्यकर्ताओं ने किसान बिल की प्रतियां सरयू नदी में बहाई। उन्होंने कहा कि किसानों के साथ उनकी पार्टी है। उन्होंने किसान बिल का काला कानून बताया और सरकार की बुद्धि-शुद्धि को हवन-पूजन किया। इस मौके पर हरक सिंह असवाल, पान सिंह मेहता, सुंदर सिंह मेहता, सुभाष चंद्र, दरवान सिंह, खीमानंद खुल्बे, महेश नगरकोटी, ललित बिष्ट, सुनील पांडे, कैलाश जोशी, महिपाल सिंह, सौरभ नगरकोटी, गिरीश कुमार, भुवन, मुकेश, आनंद कुमार, हरीश, मनीष, भुवन बिष्ट, बलवंत आर्या, विशन लाल, राजा वर्मा, मनोज कुमार आदि मौजूद थे। उधर, सवाल संगठन के केंद्रीय अध्यक्ष रमेश कृषक पांडे ने किसान बिल को काला कानून करार दिया।उन्होंने कहा कि बागनाथ केंद्र सरकार को अच्छी बुद्धि प्रदान करें। उन्होंने तीन कानून वापस लेने की मांग की और सरयू में बिल की प्रतियां बहा दी। इस मौके पर भास्कर पांडे, पूरन सिंह, मोहन सिंह, चंदन सिंह, सुमित्रा पांडे, गीता जोशी आदि मौजूद थे।
राज्य आंदोलनकारियों ने सरयू में बहाई शासनादेश की प्रतियां
बागेश्वर। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों ने मकर संक्रांति पर्व पर शासनादेश की प्रत्तियां सरयू नदी में बहाई। उन्होंने कहा कि सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों के चिंहीकरण के लिए शासनादेश बनाया। जिसे अफसरों ने फाइलों में दबा दिया है। राज्य आंदोलनकारियों को प्रमाणपत्र निर्गत नहीं किए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश में व्यापक आंदोलन की शुरूआत की जाएगी। राज्य आंदोलनकारी गोकुल जोशी के नेतृत्व में तमाम लोग गुरुवार को सरयू तट पर एकत्र हुए। उन्होंने जमकर नारेबाजी की और कहा कि राज्य आंदोलनकारियों की उपेक्षा हो रही है। मकर संक्रांति पर्व पर सरयू तट पर कुली बेगार का अंत हुआ था और वह इतिहास बना। उन्होंने कहा कि सरकार को राज्य आंदोलनकारियों को तत्काल प्रमाणपत्र निर्गत करने चाहिए। ताकि उनका सम्मान हो। उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन जब तक जिले के आंदोलनकारियों को प्रमाणपत्र निर्गत नहीं करता है तब तक आंदोलन जारी रहेगा। इस मौके पर जीवन चैधरी, लीलाधर चैबे, दिनेश गुरुरानी, बची राम, केवलानंद, गिरीश पाठक, कैलाश पाठक आदि मौजूद थे। इधर, राज्य आंदोलनकारी मोहन पाठक ने सरयू तट पर मौन धरना दिया। उन्होंने सुशीला तिवारी अस्पताल हल्द्वानी को एम्स के तर्ज पर विकसित करने और बागेश्वर जिला अस्पताल में सुशीला तिवारी अस्पताल जैसी सुविधाएं प्रदान करने की मांग की। इस मौके पर रमेश राम आदि मौजूद थे।
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