तीन धातु तीर्थंकर: श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध प्राचीन पुरावशेष

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चण्डीगढ़ के सैक्टर 10 सी. में राजकीय कला महाविद्यालय में पुरातत्त्व विभाग का संग्रहालय है। इसमें श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध प्राचीन पुरावशेष भी प्रदर्शित हैं। बौद्ध बीथिका अलग से है, क्योंकि बौद्ध पुरावशेष पर्याप्त हैं, किन्तु जैन श्रमण परम्परा के पुरावशेष यहां बहुत कम हैं, परन्तु जो हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। हमने दिनांक 1 दिसम्बर 2023 केे सर्वेक्षण में जो पाया वह इस प्रकार है-

तीर्थंकर प्रतिमा का धड़

चण्डीगढ़ संग्रहालय में पंजीयन संख्या जे.-135 पर तीर्थंकर का धड़ प्रदर्शित है जिसका शिर व वक्ष सुरक्षित है, नाभि भी सुरक्षित है किन्तु स्कंधों के बाद हाथ और पाद आदि नहीं हैं।
बलुआ पाषाण से निर्मित इस तीर्थंकर प्रतिमा का समय कुषाण काल द्वितीय शताब्दी बताया गया है, इस कारण यह प्रतिमा बहुत महत्वपूर्ण है। प्रतिमा के कुंचित केश हैं। वक्ष पर सुन्दर  श्रीवत्स चिह्न बना हुआ है। इसकी परिचय-पट्टिका में ‘बस्ट ऑफ महावीर‘ महावीर का धड़ लिखा है। किन्तु तीर्थंकर महावीर प्रतिमा का कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। लोहानीपुर के बाद देश की यह सर्व प्राचीन प्रतिमा है। इसका अंकन बहुत सुन्दर व मुखरकृति सौम्य है। कांच के बाहर से चित्र लिये जाने के कारण यहां दिये गये चिचत्र में में मुखाकृति कुछ विकृत सी प्रतीत होती है।

तीर्थंकर का शिर (प्रथम)

पंजीयन संख्या जे.-135 पर तीर्थंकर प्रतिमा का शिर प्रदर्शित है। यह बलुआ पाषाण का है। नासिका भग्न है, ओष्ठ बहुत सुन्दरता से निर्मित हैं। केश कुंचित हैं। यह प्रतिमा-खण्ड कुषाणकाल द्वितीय शताब्दी का बताया गया है। संग्रहालय में लगी परिचय-पट्टिका में इसे तीर्थंकर महावीर की प्रतिमा का शिर बताया गया है। किन्तु तीर्थंकर महावीर प्रतिमा का कोई चिह्न दिखाई नहीं देता।

तीर्थंकर का शिर (द्वितीय)

पंजीयन संख्या जे.-179 पर तीर्थंकर प्रतिमा का शिर प्रदर्शित है। यह भी बलुआ पाषाण का है। नासिका भग्न है किन्तु कुछ कम टूटी हुई है। ओष्ठ आदि प्रथम वर्णित शिर की तरह हैं।  इस प्रतिमा के केश कुंचित अर्थात् घुंघराले कुण्डली लिए हुए नहीं हैं। इसके कुचित के स्थान पर अर्धचन्द्र जैसीं पंक्तियां बनी हुईं हैं। केशों का ऐसा अंकन अन्यत्र अनुपलब्ध है।  परिचय-पट्टिका में इसे भी तीर्थंकर महावीर की प्रतिमा का शिर बताया गया है। किन्तु तीर्थंकर महावीर प्रतिमा का कोई चिह्न नहीं है।

जैन सन्त

संग्रहालय के पंजी संख्या 115 पर पद्मासन में एक सपरिकर खण्डित पाषाण प्रतिमा है, जो हरियाणा से प्राप्त हुई है। यह तीर्थंकर प्रतिमा जैसी है, लेकिन तीर्थंकर प्रतिमा नहीं है, देखें-
इस प्रतिमा के सिंहासन में सिंह बने हैं, उसके उपरान्त निकट में आराधक अंकित हैं। उनके बायें ओर महिला आसीन स्पष्ट है, दायीं ओेर की छबि खण्डित है। इनके ऊपर आसन पट्टिका पर कलश जैसी आकृति है, थोड़ी अस्पष्ट है। दोनों ओर चँवरधारी दर्शाये गये हैं। श्रीवत्स चिह्न है, मुख-आनन खण्डित है किन्तु कलात्मक प्रभावल का कुछ भाग अवशेष है। चामरधारियों के ऊपर मुख्य प्रतिमा के शिर के समानान्तर सनाल कमल लिये हुए देवाकृतियां हैं। उनके ऊपर के स्थान वितान में अभिषेकातुर गज बने हैं। ये सभी अंकन सपरिकर तीर्थंकर प्रतिमाओं में पाये जाते हैं, किन्तु इस प्रतिमा के बाजुओं में बाजूबंद या अक्षमाला-भुजबंध जैसा कोई आभरण दर्शाया गया है जो इसे तीर्थंकर प्रतिमा प्रतिष्ठापित करने से निषेध करता है। परन्तु फिर भी प्रतिमा के वक्ष पर श्रीवत्स की उपस्थिति इसे तीर्थंकर स्थापित करने के लिए पर्याप्त प्रमाण है। संग्रहालय ने इसे ‘‘जैन सन्त’’ उचित लिखा है। इसका समय 13वीं शताब्दी है।

पद्मासन तीर्थंकर

संग्रहालय से बाहर परिसर में यह प्रतिमा स्थापित प्रदर्शित है। बलुआ खुरदुरे पाषाण की प्रतिमा है। यह अर्धपद्मासनस्थ है अर्थात् पैर एक के ऊपर एक चढ़ा हुआ नहीं है, ऐसे अंकन अधिकांश दक्षिण भारत में प्राप्त होते हैं। यहां इसकी परिचय पट्टिका में भी दक्षिण भारत दर्शाया गया है। इस प्रतिमा के आसन पर नहीं अपितु पैरों के बगल दोनों ओर सिंह आकृतियां दर्शाईं गईं हैं। दोनों और औसतन बड़े चामरधारी देव अंकित हैं। प्रभावल दक्षिण भारत की कला में प्रदर्शित है। शिर पर कलात्मक त्रिछत्र शोभित है। इस प्रतिमा का समय 16वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है।

तीन धातु तीर्थंकर

एक काष्ठ के आधार पर तीन धातु प्रतिमाएँ प्रदर्शित हैं। दो श्वेताम्बर प्रतिमाएं जान पड़तीं हैं और एक दिगम्बर।  दिगम्बर प्रतिमा के मुख, नासिका आदि प्रक्षाल करने से घिस गये हैं। इनमें अभ्यिेलेख हैं। ये 14वीं व 16वीं शताब्दी की प्रतिमाएं हैं।

 
आलेख के साथ जो छायाचित्र दिये हैं वे कांच के अन्दर रखीं मूर्तियों के चित्र बाहर से निकालने पर मूर्तियां कुछ विकृत सीं दिखती हैं, किन्तु इनकी मुद्रा सौम्य है।

-डॉ० महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’,

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